Saturday, August 22, 2009

धोनो धान्ने पुष्पे भोरा आमादेर एयी बोशुन्धोरा
ताहार माझे आछे देश एक शोकोल देशेर शेरा
शे जे शोप्नो दिए तोइरी शे जे सृती दिए घेरा
एमोन देष्टि कोथाओ खुजे पाबे नाको तुमि
शोकोल देशेर रानी शे जे आमार जोंमोभूमि
शे जे आमार जोंमोभूमि शे जे आमार जोंमोभूमि

चोंद्रो शुर्जो ग्रोहो तारा, कोथाय उजोन एमोन धारा
कोथाय एमोन खेले तोरित, एमोन कालो मेघे
ओतार पाखिर डाके घूमिये पोरी पाखिर डाके जेगे
एमोन देष्टि कोथाओ खुजे पाबे नाको तुमि
शोकोल देशेर रानी शे जे आमार जोंमोभूमि
शे जे आमार जोंमोभूमि शे जे आमार जोंमोभूमि


एतो स्निग्धो नोदी ताहार, कोथाय एमोन धूम्रो पाहार
कोथाय एमोन होरित खेत्रों आकाश तोले मेषे
एमोन धानेर ओपोर धेऊ खेले जाय, बाताश ताहार देशे
एमोन देष्टि कोथाओ खुजे पाबे नाको तुमि
शोकोल देशेर रानी शे जे आमार जोंमोभूमि
शे जे आमार जोंमोभूमि शे जे आमार जोंमोभूमि

पुष्पे पुष्पे भोरा शाखी, कुंजे कुंजे गाहे पाखी
गुन्जोरिया अशे ओली, पुन्जे पुन्जे धेये
तारा फूलेर उपोर घूमिये पोरे फूलेर मोधू खेये
एमोन देष्टि कोथाओ खुजे पाबे नाको तुमि
शोकोल देशेर रानी शे जे आमार जोंमोभूमि
शे जे आमार जोंमोभूमि शे जे आमार जोंमोभूमि

भायेर मायेर एतो स्नेहो, कोथाय गेले पाबे केहो
ओ माँ तोमार चोरोन दूटी बोक्खे आमार धोरी
आमार एई देशेटे जोन्मो जेनो एई देशेटे मोरी
आमार एई देशेटे जोन्मो जेनो एई देशेटे मोरी
एमोन देष्टि कोथाओ खुजे पाबे नाको तुमि
शोकोल देशेर रानी शे जे आमार जोंमोभूमि
शे जे आमार जोंमोभूमि शे जे आमार जोंमोभूमि

धोनो धान्ने पुष्पे भोरा आमादेर एयी बोशुन्धोरा
ताहार माझे आछे देश एक शोकोल देशेर शेरा
शे जे शोप्नो दिए तोइरी शे जे सृती दिए घेरा
एमोन देष्टि कोथाओ खुजे पाबे नाको तुमि
शोकोल देशेर रानी शे जे आमार जोंमोभूमि
शे जे आमार जोंमोभूमि शे जे आमार जोंमोभूमि
शे जे आमार जोंमोभूमि शे जे आमार जोंमोभूमि

Dwijendralal Roy in the late 19th century

Monday, August 3, 2009

घर की बाड़

हवाओं से ये कैसे बयान आने लगे, घर की बाड़ ही अब घर को खाने लगे.
रौशनी थी जिनके घरों में, वो लोग दूर से ही हमें जाने पहचाने लगे
जिन जज्बातों को बयान करने में लग जाती थी सदियाँ
वो हर हफ्ते रोजाना दिखलाये जाने लगे.
जिसके कंधे पर रख कर शिकार करने वाले, अब
खुद उन्ही कन्धों की ताकत से घबराने लगे.
जो कहकहे कभी एक परिवार में गूंजते थे कभी
वो आजकल कुछ कारोबारी वख्वों के बीच दिखलाये जाने लगे.
सच बोलने के और उस पर टिकने के लिए जो मशहूर थे,
उनकी सीरत के नोटों के लालच में सच बुलवाए जाने लगे
आम आदमी की चुनोतियों से किनारा किये कुछ लोग,
घने जंगल में जूझने को बुलाये जाने लगे.
टीआरपी की होड़ में, न जाने कितने सच झूठ में,
और झूठ सच में तोड़ मरोड़ कर दिखलाये जाने लगे.
हवाओं से ये कैसे बयान आने लगे, घर की बाड़ ही अब घर को खाने लगे.
धर्मेन्द्र
३० जुलाई २००९

अपनी छाप

जिन्दगी एक सफ़र की शक्ल में तब्दील हो गयी है,
मंजिल को पाने की चाह न जाने कहाँ खो गयी है
माथे से फूट कर जो आती थी पसीने की बूँदें,
शिकन की सिलवटों में सहम के कहीं सो गयी हैं
बिलखते पाँव के छालों ने भी अपनी नियति समझ ली है,
उनकी चीख, सहरा की रेत में अपनी छाप में ही दुबक कर सो गयी है
सौगात सी दिखने वाली चेहरे की हँसी को, कल की चिंता अपने पहलु में डुबो गयी है
ये जिन्दगी क्या थी क्या हो गयी है, मंजिल को पाने की चाह कहाँ खो गयी है?
धर्मेन्द्र
२७ जुलाई 2009