Monday, August 3, 2009

अपनी छाप

जिन्दगी एक सफ़र की शक्ल में तब्दील हो गयी है,
मंजिल को पाने की चाह न जाने कहाँ खो गयी है
माथे से फूट कर जो आती थी पसीने की बूँदें,
शिकन की सिलवटों में सहम के कहीं सो गयी हैं
बिलखते पाँव के छालों ने भी अपनी नियति समझ ली है,
उनकी चीख, सहरा की रेत में अपनी छाप में ही दुबक कर सो गयी है
सौगात सी दिखने वाली चेहरे की हँसी को, कल की चिंता अपने पहलु में डुबो गयी है
ये जिन्दगी क्या थी क्या हो गयी है, मंजिल को पाने की चाह कहाँ खो गयी है?
धर्मेन्द्र
२७ जुलाई 2009

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