Monday, August 3, 2009

घर की बाड़

हवाओं से ये कैसे बयान आने लगे, घर की बाड़ ही अब घर को खाने लगे.
रौशनी थी जिनके घरों में, वो लोग दूर से ही हमें जाने पहचाने लगे
जिन जज्बातों को बयान करने में लग जाती थी सदियाँ
वो हर हफ्ते रोजाना दिखलाये जाने लगे.
जिसके कंधे पर रख कर शिकार करने वाले, अब
खुद उन्ही कन्धों की ताकत से घबराने लगे.
जो कहकहे कभी एक परिवार में गूंजते थे कभी
वो आजकल कुछ कारोबारी वख्वों के बीच दिखलाये जाने लगे.
सच बोलने के और उस पर टिकने के लिए जो मशहूर थे,
उनकी सीरत के नोटों के लालच में सच बुलवाए जाने लगे
आम आदमी की चुनोतियों से किनारा किये कुछ लोग,
घने जंगल में जूझने को बुलाये जाने लगे.
टीआरपी की होड़ में, न जाने कितने सच झूठ में,
और झूठ सच में तोड़ मरोड़ कर दिखलाये जाने लगे.
हवाओं से ये कैसे बयान आने लगे, घर की बाड़ ही अब घर को खाने लगे.
धर्मेन्द्र
३० जुलाई २००९

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