इक अजनबी सी चाह लिये घूमते रहे,
ना वक्त की खबर रही ना खुद की बिसात की
किस ओर मुड़ गये कदम कभी बीच राह में,
मालूम अपने पाँव के छालों से ही पड़ा,
अक्सर तो हमें जानने वाला कोई ना था,
जो मिल भी गया सरेराह,
रुख फेर के चला गया, जैसे कि
वो अपना कोई ना था ।।
इक बिन ब्याहे ख्वाब सा चलता रहा यूंही
पूरी रात करवटें बदलता
वक्त की सिलवटों के बीच
किसी बेबस खामोशी में।।
चैन की सांस अब मय्यसर हो,
इसी इंतज़ार में
दुनिया के इसी मज़मे को
सुबह शाम देखता चला गया।।
कुछ बोलती खामोशी किसी बेज़ुबान की
दो कान आँख दुरुस्त लेकर भी
चलता चला गया।।
खुद की बिसात होगी क्या
इनकी ज़मीन पर
अपनी जड़ें मैं खुद ही अभी
खोज ना सका।।
धर्मेंद्र शर्मा
१९ अक्तूबर २००७
Wednesday, April 22, 2009
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