Wednesday, April 22, 2009

गोटियाँ बिछा के वो बैठे हैं इस बिसात पर, वो उतर आये हैं अपनी आखरी औकात पर,

जिन्दगी का सौदा करना चाहते हैं जो यहाँ, खंजर निकल आते हैं जिनकी छोटी छोटी बात पर,

अधमरा सा कर दिया है जिसने हर इंसान को, वो ही जज्बाती दिखे इंसानियत के नाम पर,

हर मुखोटे के पीछे छिपे ये पक्के बे-इमान हैं, आबरू तक बेच डालें मुठी भर के दाम पर,

नंगे होते हैं हरम में लोग मैंने था सुना, हैं यहाँ नंगे सभी सियासत के इस हमाम पर,

वो फरेबी नोक से खंजरों की क्या डरें, खंजरों का कारखाना हो ही जिनके नाम पर,

वक़्त के प्यादे हैं सब, ये तो मैंने था सुना, वक़्त को प्यादा बना देते हैं ये गुलफाम सब,

भाड़े के गुर्गे नाचते हैं पैसे की झंकार पर, ये नशा ले जायेगा इनको अब और किस मुकाम पर

फलसफे गढ़ते रहे वो पीढियों तक जिस काम के, इंसा यूँ ही पिसता रहा दो रोटियों के नाम पर

गोटियाँ बिछा के वो बैठे हैं इस बिसात पर, वो उतर आये हैं अपनी आखरी औकात पर!!

धर्मेन्द्र

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